पांच रुपये में १० मिनट
पांच रुपये में १० मिनट
चीखते वह चला आता था।
मोहोल्ले के बहादुरजी से बचते हुए,
हर इतवार लाल तम्बू लगाता था।
क्या बच्चे क्या बूढ़े क्या औरतें क्या नौजवान,
नियुक्त अस्तित्व छोड़ सब बनजाते कदरदान।
कभी जोधा अकबर की प्रेम कहानी,
तोह कभी श्रवण कुमार की आदर्शता,
कभी कृष्णलीला और गोपियाँ सुहानी,
तोह कभी भगवान् श्रीराम की वनवास कथा
ज़बान से नहीं रस्सियों से कविताएं बतियाते थे वोह ,
चेहरे पे झुर्रियां थी पर उँगलियों से जादू चलाते थे वोह।
इसकी थाली में रोटी भले ना हो।
पर मुख पे शिकस्त का एक कतरा नहीं।
किताबों से ज़तदा स्पष्ट भाषा अब कठपुतलियां लगती थी मुझे,
बेजान लकड़ी के पुतलों को दिलोजान बना बैठा था मैं।
कुछ सीटियों सा आवाज़ आता था उस पडदे के पीछे से,
नादानों के लिए शोर, पर मेरे लिए तोह कबीर वाणी सा स्पष्ट।
चेहरे पे झुर्रियां थी पर उँगलियों से जादू चलाते थे वोह।
खुदके भविष्य के कोई ठिकाने नहीं,
पर दर्शकों को खुली आँखों से सपने दिखाए,
इसकी थाली में रोटी भले ना हो।
पर मुख पे शिकस्त का एक कतरा नहीं।
किताबों से ज़तदा स्पष्ट भाषा अब कठपुतलियां लगती थी मुझे,
बेजान लकड़ी के पुतलों को दिलोजान बना बैठा था मैं।
कुछ सीटियों सा आवाज़ आता था उस पडदे के पीछे से,
नादानों के लिए शोर, पर मेरे लिए तोह कबीर वाणी सा स्पष्ट।
बच्चों के रुदन को एक ठुमके में हसरतों में तब्दील करता था,
कागज़ के शेरों को नजाने दहाड़ना भुला कर सीटियां कैसे बजवाता था
में तोह जादूगर कहता था उसे,
में तोह जादूगर कहता था उसे,
नजाने लोग उसे क्यों कठपुतली वाला बुलाया करते थे।